Tuesday, January 17, 2017

मुझ से पहली सी मोहब्बत, मेरे महबूब, न माँग \- ४ मैंने समझा था के तू है तो दरख़्शां है हयात तेरा ग़म है तो ग़म\-ए\-दहर का झगड़ा क्या है तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है \- २ तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगों हो जाए यूँ न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए मुझ से पहली सी मोहब्बत, मेरे महबूब, न माँग अनगिनत सदियों के तारीक बहिमाना तलिस्म रेश\-ओ\-अठलस\-ओ\-कमख़ाब\-ओ\-बाज़ार में जिस्म ख़ाक में लितड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मग़र क्या कीजे \- २ और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा मुझ से पहली सी मोहब्बत, मेरे महबूब, न माँग


via Shayari Ek Dil Ki Awaj https://www.facebook.com/shayariHARekDIlkiAwaj/photos/a.157456461377614.1073741830.156493908140536/232654977191095/?type=3

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